Friday, September 16, 2005

संगति की गति


मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है । और , इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है , कि वह अन्य जीवधारी प्राणियों की तुलना में सर्वाधिक विकसित प्राणी भी है । इस नाते मानव समाज में सहअस्तित्व का
भाव भी अन्य जीवधारियों की तुलना में कहीं अधिक महत्वपूर्ण है ।

पर , सहअस्तित्व की मूल अवधारणा और समुचित महत्व को समझना तो सहज है । लेकिन इसके व्यावहारिक पहलुओं पर अगर गौर करें , तो यह बात इतनी जटिल हो जाती है कि इस अवधारणा का महत्व सिर्फ सैद्धान्तिक लगने लगता है ।

समाज के संवेदनशील अंग समझे जाने वाले कवियों , साहित्यकारों ने इस महत्व को तरह तरह से समझने और परखने की कोशिश की और भिन्न भिन्न ढ़ंग से अपनी बातें कही हैं । मसलन , देखिये कुछेक प्रचलित व सर्वमान्य उद्धरणः

(१). "चंदन विष व्यापत नहीं , लिपटे रहत भुजंग।"
(२). "कह रहीम कैसे निभे , केर , बेर को संग ? "
(३). "खल संग कलह , न , भल संग प्रीति ।
कवि , कोविद सबकी यह रीति ।।"
(४) "जो तो को काँटा बुए , ताहि बोए तू फूल ।
ताके फूल के फूल हैं , वाके हैं तिरशूल ।।"
(५) "शठ सुधरहिं सतसंगति पाई"
(६) "वृक्ष कबहुँ नहिं फल भखैं , नदी न संचै नीर
परमारथ के कारनौं , साधुन धरा शरीर । "
(७) “एक घड़ी , आधी घड़ी , आधी में पुनि आध,
तुलसी संगति साधु की हरै कोटि अपराध ।“

ये वे कुछ उद्धरण हैं , जिन्हें मैं , सिर्फ स्मृतियों को टटोल कर प्रस्तुत कर रहा हूँ ।

पर ,यह सूक्तियाँ या उक्तियाँ ,कहीं तो मुझे अतिशयोक्ति बन पड़ी दिखती है और ,कहीं बिना स्वयं ,अमल मे लाये गये ,दूसरों पर थोपे गये उपदेश मात्र ।

अब देखें जरा , कहा गया है , "चंदन विष व्यापत नहीं ....." । ठीक है , चंदन वृक्ष है , प्राण तत्व उसमें भी है । लेकिन ,कभी किसी चिकित्सक के यहाँ ,आपने किसी ऐसे छोटे बालक को ,जो ,गोद में रहने की अवस्था पार कर चुका हो और बोल चाल में सक्षम हो ,अपने अभिभावक की उपस्थिति में भी ,सूई चुभाए जाने की प्रक्रिया से गुजरते हुए देखा है।हो सकता है ,वह भय और छटपटाहट आपने किसी उम्रदराज व्यक्ति के साथ भी अनुभव की हो। लेकिन , इस उदाहरण को यहाँ पर उपस्थित करना मुझे इसलिये तार्किक लगा कि , चंदन का वृक्ष यदि जड़ से काट भी दिया जाये , तो वह कोई प्रतिरोध नहीं प्रकट करेगा लेकिन , उपरोक्त उदाहरण से , यह बात तो समझ में आती है कि व्यक्ति के सामने नेक आशय स्पष्ट हों भी , तो वह किन्हीं कष्टानुभवों को स्वेच्छापूर्वक वरण नहीं करना चाहता ।

एक दूसरी उक्ति देखें , "खल संग कलह , न , भल संग प्रीति...." । बात बहुत गूढ़ता से व्यक्त है । पर , जिस तरह ज्यामितीय प्रमेयों की "कोरोलोरी" भी कहीं-कहीं निकल पड़ती हैं , कुछ वैसा ही मुझे , इस दोहे के साथ प्रतीत होता है । इस दोहे में निहित शिक्षा आप को सबसे पहले यह तय करने का निर्देश देती है कि आप पहले यह निर्धारित करें कि , अमुक व्यक्ति किस श्रेणी के लायक है ? कुटिल या सम्भ्रान्त ? और , तदुनुरूप आप किसी से विग्रह मोल लें , या न लें । पर , यक्ष प्र‍श्‍न यह है , कि अगर खल आपसे कलह मोल ले , तो आप क्या करें ?

अगर आप ने डब्लू॰डब्लू॰एफ॰ की प्रतियोगिताओं में भाग लेने वाले बलिष्ठ पहलवानों को भिड़ते हुए कभी देखा होगा , तो क्या आप यह मानने को तैयार नहीं कि , पशुवत आचरण से दूर रहने में नहीं , बल्कि उसे अपना कर , खेल बना कर , जो समाज मजे लेने में व्यस्त है , उस वर्ग या समूह को , अभी तक खेल और हिंसा के मायने ही ठीक से नहीं पता !

सुप्रसिद्ध एवं सुप्रतिष्ठित कवि श्री गोपलदास नीरज ने , एक कवि सम्मेलन में कहा , कि मेरी कविता के अगर सिर्फ पहले दो पंक्तियों को , आप ने अपनी सोच में शामिल कर लिया , तो मैं अपना आना सार्थक समझूँगा और वे दो पंक्तियाँ यह थीं:

"एक मजहब अब , ऐसा भी चलाया जाये , कि ,
इस दौर के इन्सान को इन्सान बनाया जाये ।"

कहने का तात्पर्य यह , कि सिर्फ मनुष्य का जन्म लेने वालों को ही मनुष्य नहीं माना जाना चाहिये । मनुष्य की परिभाषाओं के दायरे में आने वालों को ही मनुष्य का दर्जा दे पाना संभव है।

मैं इलाहाबाद के इन्जीनियरिंग कालेज के प्रथम वर्ष में था । प्रवेश की औपचारिकताएँ भी अभी ठीक से नहीं पूरी हो पायीं थीं कि, मेरे ही कक्षा के , भिलाई से आये एक छात्र की नृशंस हत्या कर दी गयी थी। लड़के का शव , विद्यालय परिसर में ही ट्रेन की पटरी पर पाया गया । मैं सोच कर भी किसी नतीजे पर आज तक नहीं पहुँच पाया कि महीने भर भी तो नहीं गुजरे थे , हम लोगों को कालेज आये ; फिर कौन सी ऐसी वजह थी कि , मेरे ही जैसे दिखते हुए किसी सामान्य व्यक्ति के लिये , किसी के मन में इस कदर शत्रुता घर कर गयी कि उसे जान से हाथ धोना पड़ा (क्योंकि यह तय बात थी , कि न तो उसने आत्महत्या की थी , न हीं वह किसी दुर्घटना का शिकार हुआ था । )

यहाँ समाज उत्तरदायी है । समाज , मतलब , हर एक व्यक्ति । १९८३ में हुई घटना का २००५ तक कोई हल नहीं ढ़ूँढ़ा गया ।
लेकिन , एक व्यक्ति था , काली कलूटी काया वाला , सामान्य सा कद , आँखों पर मोटे लेन्स का चश्मा , नाम था वाई॰वी॰एन॰राव !
जैसी की उम्मीद थी , घटना के बाद , तोड़-फोड़ और व्यापक पैमाने पर उपद्रव हुए । अगले ही दिन से विद्यालय बन्द हो गया अनिश्‍चितकाल के लिये। और , फिर जब विद्यालय के द्वार खुले , तो प्रिंसिपल की कुर्सी पर एक नया आदमी बैठा था । इसी व्यक्ति का नाम था , वाई॰वी॰एन॰राव ।
मुझे , अन्य मित्रों के प्रेरणावश किसी शिक्षक को अपने जीवन में योगदान देने की वजह से , किसी शिक्षक का नाम याद नहीं आता लेकिन जिस प्रिंसिपल की बात मैंने शुरू की है , उस व्यक्ति की चुनौती थी , पूरे विद्यालय के माहौल को शैक्षणिक माहौल में बदलना !

"शठ सुधरहिं सत्संगति पाई" का व्यावहारिक पक्ष बाकी के तीन सालों , विद्यालय में हम देखते रहे।

एक-एक दुष्टों के प्रति , शत्रुतापूर्वक निर्णय लेने में जो दृढ़ता उन्होंने दिखायी , कि फिर लड़कों को संस्थाओं में जीने का तरीका आ गया ।

ज्यादातर लोगों की विचारधाराएँ समाज में व्याप्त नियमों से प्रभावित होती है। लेकिन कुछेक लोग समाज के ऐसे केन्द्र बिन्दु पर होते हैं , जिनकी विचारधारा से पूरी व्यवस्था प्रभावित होती है , सम्पूर्ण मानव समाज प्रभावित होता है । ये "कुछेक" लोग चमत्कारी बाबा , राजनेताओं , माफिया भूपतियों से ले कर , आविष्कारकर्ताओं , वैज्ञानिकों , दार्शनिकों , समाज सुधारकों में से कोई भी हो सकता है । और , इस तरह से संगति की गति संक्रामक हो सकती है । भगवान "रजनीश" से कौन नहीं वाकिफ होगा ? मुझे बिल्कुल आश्‍चर्य नहीं होगा यदि इस लेख को पढ़ने वालों में से किसी ने स्वामी वल्लभ प्रभुपाद का नाम तक भी नहीं सुना हो । इनके किए गये कामों की बात तो छोड़ ही दें । जिन्होंने ISKON नाम की एक संस्था का निर्माण किया , जो भगवान कृष्ण के संदेशो के प्रचार , प्रसार का काम पचासों सालों से करती आ रही है । और जो गौरतलब बात है , वह यह कि यह संस्था पूर्णतः अंग्रेजों द्वारा संचालित होती है। इनका एक मंदिर वृन्दावन में है , मथुरा से थोड़ी दूर ! यहाँ अंग्रेज , पंडितों का काम करते हैं। यह करने की शक्ति उन्हें दी है , उस वैचारिक संगति ने , जो भारतीय होते हुए भी , सदैव भारत में , अपने लोगों के बीच अपरिचित रहा । कैसी विचित्र विसंगति है ?

यह सीख , आज भी १०० में से ९९ अभिभावक , संत , शिक्षक देते हैं और देते रहेंगे कि , कुसंग से बचना चाहिये । पर , इस संदर्भ में बचपन में पढ़ी एक कथा मुझे बहुत प्रासंगिक लगती हैं । किसी शिक्षक ने अपने प्रिय शिष्य से कहा , कि, "तुम्हें अमुक के साथ नहीं रहना चाहिये क्योंकि उस बालक की आदतें बिगड़ी हुई हैं ।" बच्चे ने शिक्षक से कहा , "यदि ऐसा है , तो क्या यह संभव नहीं कि मेरे संग से मेरे मित्र की आदतें सुधर जायें यानी उसके संग का प्रभाव मुझ पर न पड़ कर , उस पर मेरे संग का प्रभाव पड़े।"
यह कथा , शायद बाल मन के भोलेपन का प्रतीक और , अपने मित्रधर्म के प्रति अपने निष्कलुष विचारों को ही भले दर्शाती हो , और व्यवहार में , शायद ऐसा न होता हो , लेकिन यह सोच यह तो दर्शाती ही है , कि यदि आपकी सोच स्पष्ट है , तो आप को ज्यादा घबराने की जरूरत नहीं । यदि , आप अपने आचरण के प्रति खुद ईमानदार हैं तो जीवन में , किसी सलाहकार की जरूरत नहीं पड़ती ।

मुझे , इसीलिए यह जान पड़ता है , कि संगति , कुसंगति , और सत्संगति के प्रभाव तो पड़ते हैं , क्योंकि संगति के प्रभाव से मनोविज्ञान प्रभावित होता है और , मनोविज्ञान बदलने से विचार बदलते हैं , फिर आचार , फिर व्यक्ति का सम्पूर्ण व्यक्तित्व। अतएव , मुझे रवीन्द्र नाथ टैगोर का "एकला चलो रे" का आवाह्न या भगवान बुद्ध का "अप्पदीपो भवः" का संदेश ज्यादा यथार्थपरक, शाश्‍वत और कालजयी लगते हैं । और , ये संदेश , मुझे दूर तक दुनिया के मायावी संगतियों , विसंगतियों से , बतौर सामान्य व्यक्ति , अपनी अस्मिता की रक्षा प्रदान करने में अधिक समर्थ जान पड़ते हैं।
।।इति श्री।।

2 comments:

अनूप शुक्ल said...

लिखते रहो हम पढ़ रहे हैं.

Anonymous said...

भैया, संगति की गति पर ही कब तक अटके रहोगे?