Friday, November 25, 2005

क्यों देखते हैं हम फिल्में ?



जब से अनुगूँज संख्या १५ के लिये पंकज जी ने विषय "क्यों देखते हैं हम फिल्में ?" का "टास" उछाला है, मैं सर्वेक्षण में लग गया हूँ, कि आखिरकार पता किया जाय कि, हर उम्र और हर वर्ग के लोग क्यों देखते हैं फिल्में, और, वह भी गहरे चाव के साथ ! सर्वेक्षण इसलिये करना पड़ रहा है, कि ब्लागिंग का जो आदर्श मेरे सामने है, वह इस वाक्य की उपस्थिति से आया है, कि, "॰॰॰हम तो जबरिया लिखबो यार, हमार कोई का करिहैं ? " सो, हमें लिखना जरूरी है!

तो सर्वेक्षण चल रहा है।

सरसरी तौर पर तो, सभी लोग इसका एक ही जवाब दे रहे हैं, "भाई, हमारे पास पैसा है, फुरसत है, मनोरंजन का जज्बा है, तो देखते हैं फिल्में।"

एकाध बार, करीबी मित्र समझ कर लोग एक जुमला और जोड़ देते हैं,"क्यों, आप को कोई परेशानी तो नहीं ?"

शायद उन्हें लगता है, कि मैं उनके निजी मामले में दखल दे रहा हूँ। और भक्ति से ओत-प्रोत फिल्मों के चित्रों के लेबल लगी गोपनीय ढ़ंग से बिकने वाली और देखी जाने वाली फिल्मों की बात तो नहीं कर रहा !

अच्छा सिरदर्द है, एक समस्या का हल ढूँढ़ने निकले तो, दूसरी समस्या आ गयी !

अब क्या किया जाय, और कैसे पता किया जाय, कि क्यों देखी जाती हैं फिल्में ?सो, हमने प्रश्‍न को थोड़ा सरल किया। सो, अब हम यह पूछना शुरू किये, कि भाई साहब, आप फिल्में देखते हैं ? यह युक्ति कारगर हुई। लोगों को लगता है, कि मैं फिल्मों का अच्छा ज्ञाता हूँ और, कुछ दिलचस्प चीजें बता सकता हूँ।

तब तक "अनुगूँज" पर कई पोस्टें भी आ गयी । लगा कि, थोड़ा भार हल्का हुआ !

लेकिन अब तक के "अनुगूँज" के लेखों को पढ़ने के बाद तो यह लग रहा है कि भाई, ये सारे के सारे सधे हुए लेखक हैं। कोई राज की बात तो बता ही नहीं रहा। हर आदमी कहता है, कि भाई हम तो इसलिये देखते हैं, बाकी का खुद जा कर पूछो, गरज हो, तो, स्वयं पता करो। हमें औरों से मतलब नहीं, अपना पता है, सो बता दिया।

इसी पर, बरबस ही, मुझे एक वाकया याद आ रहा है।

सोचते - सोचते, मुझे बगल में रहने वाले अपने मित्र की पत्नी की याद आ जाती है। (अपने इस मित्र के बारे में मैं, पहले भी लिख चुका हूँ, "माजरे का दूसरा पहलू" में। सुमात्रा में सुनामी आने से पहले इन्हें भारत से बेहद घृणा थी। खैर, भगवान का लाख लाख शुक्र है, कि, सुनामी की दहशत ने इन पर जादू सा असर किया और, इनकी अपनी राष्ट्रीयता के संबंध में खोई हुई याद्‍दाश्त समय रहते हुए लौट आयी।) अपने इस मित्र की पत्नी यहाँ आते ही आते, अपने नौकरी की जुगाड़ में लग गयीं। एक दिन, हममें से एक ने जिज्ञासा प्रकट की, कि भाभी जी, क्या हुआ ? भाभी जी तुनक कर बोलीं, "आप से क्या मतलब ?"

अब चूँकि यह सब बातें लिखी जा रही हैं, और इसे पढ़ने वाले और समझने वाले भी हैं, तो, उन्हें पता चल रहा है कि ऐसा भी होता है। लेकिन, यह सब तब सम्भव है, जब व्यक्ति को सामयिक चीजों के बारे में पढ़ने को मिलता रहे और, व्यक्ति पढ़ता भी रहे।

लेकिन अब अगर इसी घटना को, एक दृश्‍य के रूप में, चित्रांकित कर दिया जाये, तो यह घटना ज्यादा सजीव लगेगी, और, जानने वालों को भी किसी तरह की कल्पना का सहारा नहीं लेना पड़ेगा कि, इस तरह की प्रतिक्रिया के पीछे, स्थिति कुछ इस तरह की रही होगी, या उस तरह की रही होगी। और, इस प्रकार, इस छोटी सी बात या घटना का आनन्द ज्यादा लोगों तक पहुँचेगा, चलते-चलते वाले अन्दाज में। कहते हैं, चित्रों में, हजार शब्दों के अर्थों को अभिव्यक्त करने की सामर्थ्य होती है।

तो, एक वजह तो यह हुई फिल्मों की लोकप्रियता की। तमाम चीजों की कल्पना को मूर्त रूप में देख कर, सहज अनुभूति व आनन्द प्राप्ति की। यानी अंग्रेजी की कहावत, "सीइंग इज़ बिलीविंग" ।

दूसरी बात यह है, जो, सुप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक फ्रायड कहते हैं, कि, कला वह नशा है, जिससे, जीवन की कठोरताओं से विश्राम मिलता है। शायद, सही कहते हैं, फ्रायड !

अब सवाल यह है, कि यह नशा कितना जरूरी या गैर जरूरी है ? तो, मेरे विचार से तो यह मानना कत्तई जरूरी नहीं कि, फिल्में ही मनोरंजन का सर्वोत्तम साधन हैं। जिस देश में मैं रह रहा हूँ , यहाँ, फिल्मों को ले कर बात करें, तो तुरन्त भारत की बात शुरू हो जाती है। लोग, भारत पर बात करना और फिल्मों पर बात करना एक ही जैसा समझते हैं। किसी को यहाँ की फिल्मों के बारे में कोई दिलचस्पी नहीं। ऐसे और भी बहुत देश होंगे, जहाँ फिल्मों को ले कर लोगों में कोई विशेष उत्साह नहीं होगा।

इन्डोनेशिया में, पिछले तीन साल से रहते हुए, मुझे अभी भी यह सोच कर हैरत होती है, कि इस देश के नागरिकों को क्रिकेट और फिल्म जैसी बीमारियों के बारे में जानने या बात करने की कोई दिलचस्पी नहीं है। और न ही, इनके बारे में, किसी किस्म का कोई उत्साह यहाँ के लोगों में, देखने को मिलता है।

तो, हो सकता है, कि यह फिल्में देखने और उनके बारे में बातें करने का शगल, विकसित देशों में ही ज्यादा हो। क्यों कि, कल्पनाओं में भी आनन्द लूटने का जज्बा सम्पन्न समाज में ही शायद, आसानी से पनप पाता हो, और, ज्यादा पनपता हो।

बहरहाल, फिल्में अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम हैं, इसको मान लेने में, कोई गुरेज नहीं।

जिस तरह, खाना, कपड़ा और घर, हर व्यक्ति की आवश्‍यकता है, उसी तरह, खाली समय में भी, मानसिक स्फूर्ति को हासिल रख पाने के लिये, (अंग्रेजी के शब्द fatigue से बच पाने के लिये), स्वस्थ मनोरंजन आवश्‍यक है, जो आप की सृजनात्मक शक्ति को बिखरने से रोक सके और सही दिशा में, सही परिप्रेक्ष्य में, समाज की विभिन्न गतिविधियों से जोड़ सकने में सक्षम हो।

"गाँधी" जैसी फिल्म मनोरंजन के लिये तो नहीं बनी। पर, इतिहास को समझने और जानने का एक बेहतरीन प्रयास था उस फिल्म में, जो, गाँधी युग के लगभग समाप्त होते हुए समय में, उनकी याद पुन: ताजा कर गयी और एक ऐसे समय में, जब लोग गाँधी जी को लगभग भूल चुके थे, उस समय में, उनके मूल्यों और आदर्शों को पुनः समझने की और प्रतिष्ठापित करने की प्रासंगिकता और आवश्‍यकता को महसूस करा दिया, रिचर्ड एटनबरो ने।

समान्तर सिनेमा के दौर में जो फिल्में बनीं, वह एक प्रकार से कहा जाय, तो, उस विचारधारा के खिलाफ एक मुहिम थी, जिसके अन्तर्गत व्यक्ति को समाज के नीचे पड़े मलबे में जिये जा रहे जीवन के बारे में जानने की कोई दिलचस्पी ही नहीं थी। पार,दामुल,द्रोहकाल,आक्रोश,प्रहार,अर्धसत्य, सद्‍गति,अंकुर, अंकुश,निशान्त जैसी सारी फिल्में, मैं तो कहूँगा, कि आँखे मींचे समाज को, थप्पड़ मारने की कोशिश थी। इन फिल्मों के निर्देशकों में, समाज के प्रति मुझे एक गहरी सजगता देखने को मिली। जैसे, मानो वे यह कहना चाहते रहे हों, कि, इन निचले आर्थिक श्रेणी में, पलने, बढ़ने वालों का जीवन कब जीने लायक होगा ? हाल ही में, आयी फिल्म "गंगाजल" में भी मुझे व्यावसायिक धरातल पर दम तोड़ चुके समान्तर सिनेमा की साँसों का आभास हुआ। इन फिल्मों में एक क्रिएटिव वैल्यू थी; भले ही, इन फिल्मों ने मनोरन्जन नहीं परोसा।

तो, यह था त्रिभुज का तीसरा कोण। यानी, सच्चाईयों से मुख मोड़ कर जीने वाले समाज को कठोर विषमताओं का साक्षात्कार कराना।

बाकी अपनी पसन्द-नापसन्द का जहाँ तक प्रश्‍न है, तो, फिल्म "प्रतिघात" में, नाना पाटेकर पर फिल्माये गये गाने "हमरे बलमा बेईमान, हमें पटियाने आये रे..." के दृष्य में तो, मुझे, सृजनात्मकता, मनोरन्जन, कला, अभिनय,पीड़ा, अनुभूति,अभिव्यक्ति सब कुछ एक साथ दिखता है। यह दृष्य कुछेक उन दृष्यों में से है, जो मुझे हर प्रकार की मानसिक अवस्था में प्रिय लगता रहा है !

भयपूर्ण और, ऊलूल-जुलूल कथानक पर आधारित फिल्मों में मनोरंजन ढ़ूँढ़ने का मनोविज्ञान मुझे नहीं पता और, न हीं शायद मैं समझ पाऊँगा।

हाँ, भारतीय फिल्मों की जो मुख्य धारा है, उसको देखने में, सौन्दर्य को निरखने का जो सुख है, वह भी, तो अप्रतिम और निराला है । तो, जो सौन्दर्य आप की कल्पना के भी बाहर लगता हो, उसे करीब से देखने, और वह भी चलते फिरते हुए रूप में देखने के लिये, किसी कारण का मोहताज क्यों हो ?