Friday, November 25, 2005

क्यों देखते हैं हम फिल्में ?



जब से अनुगूँज संख्या १५ के लिये पंकज जी ने विषय "क्यों देखते हैं हम फिल्में ?" का "टास" उछाला है, मैं सर्वेक्षण में लग गया हूँ, कि आखिरकार पता किया जाय कि, हर उम्र और हर वर्ग के लोग क्यों देखते हैं फिल्में, और, वह भी गहरे चाव के साथ ! सर्वेक्षण इसलिये करना पड़ रहा है, कि ब्लागिंग का जो आदर्श मेरे सामने है, वह इस वाक्य की उपस्थिति से आया है, कि, "॰॰॰हम तो जबरिया लिखबो यार, हमार कोई का करिहैं ? " सो, हमें लिखना जरूरी है!

तो सर्वेक्षण चल रहा है।

सरसरी तौर पर तो, सभी लोग इसका एक ही जवाब दे रहे हैं, "भाई, हमारे पास पैसा है, फुरसत है, मनोरंजन का जज्बा है, तो देखते हैं फिल्में।"

एकाध बार, करीबी मित्र समझ कर लोग एक जुमला और जोड़ देते हैं,"क्यों, आप को कोई परेशानी तो नहीं ?"

शायद उन्हें लगता है, कि मैं उनके निजी मामले में दखल दे रहा हूँ। और भक्ति से ओत-प्रोत फिल्मों के चित्रों के लेबल लगी गोपनीय ढ़ंग से बिकने वाली और देखी जाने वाली फिल्मों की बात तो नहीं कर रहा !

अच्छा सिरदर्द है, एक समस्या का हल ढूँढ़ने निकले तो, दूसरी समस्या आ गयी !

अब क्या किया जाय, और कैसे पता किया जाय, कि क्यों देखी जाती हैं फिल्में ?सो, हमने प्रश्‍न को थोड़ा सरल किया। सो, अब हम यह पूछना शुरू किये, कि भाई साहब, आप फिल्में देखते हैं ? यह युक्ति कारगर हुई। लोगों को लगता है, कि मैं फिल्मों का अच्छा ज्ञाता हूँ और, कुछ दिलचस्प चीजें बता सकता हूँ।

तब तक "अनुगूँज" पर कई पोस्टें भी आ गयी । लगा कि, थोड़ा भार हल्का हुआ !

लेकिन अब तक के "अनुगूँज" के लेखों को पढ़ने के बाद तो यह लग रहा है कि भाई, ये सारे के सारे सधे हुए लेखक हैं। कोई राज की बात तो बता ही नहीं रहा। हर आदमी कहता है, कि भाई हम तो इसलिये देखते हैं, बाकी का खुद जा कर पूछो, गरज हो, तो, स्वयं पता करो। हमें औरों से मतलब नहीं, अपना पता है, सो बता दिया।

इसी पर, बरबस ही, मुझे एक वाकया याद आ रहा है।

सोचते - सोचते, मुझे बगल में रहने वाले अपने मित्र की पत्नी की याद आ जाती है। (अपने इस मित्र के बारे में मैं, पहले भी लिख चुका हूँ, "माजरे का दूसरा पहलू" में। सुमात्रा में सुनामी आने से पहले इन्हें भारत से बेहद घृणा थी। खैर, भगवान का लाख लाख शुक्र है, कि, सुनामी की दहशत ने इन पर जादू सा असर किया और, इनकी अपनी राष्ट्रीयता के संबंध में खोई हुई याद्‍दाश्त समय रहते हुए लौट आयी।) अपने इस मित्र की पत्नी यहाँ आते ही आते, अपने नौकरी की जुगाड़ में लग गयीं। एक दिन, हममें से एक ने जिज्ञासा प्रकट की, कि भाभी जी, क्या हुआ ? भाभी जी तुनक कर बोलीं, "आप से क्या मतलब ?"

अब चूँकि यह सब बातें लिखी जा रही हैं, और इसे पढ़ने वाले और समझने वाले भी हैं, तो, उन्हें पता चल रहा है कि ऐसा भी होता है। लेकिन, यह सब तब सम्भव है, जब व्यक्ति को सामयिक चीजों के बारे में पढ़ने को मिलता रहे और, व्यक्ति पढ़ता भी रहे।

लेकिन अब अगर इसी घटना को, एक दृश्‍य के रूप में, चित्रांकित कर दिया जाये, तो यह घटना ज्यादा सजीव लगेगी, और, जानने वालों को भी किसी तरह की कल्पना का सहारा नहीं लेना पड़ेगा कि, इस तरह की प्रतिक्रिया के पीछे, स्थिति कुछ इस तरह की रही होगी, या उस तरह की रही होगी। और, इस प्रकार, इस छोटी सी बात या घटना का आनन्द ज्यादा लोगों तक पहुँचेगा, चलते-चलते वाले अन्दाज में। कहते हैं, चित्रों में, हजार शब्दों के अर्थों को अभिव्यक्त करने की सामर्थ्य होती है।

तो, एक वजह तो यह हुई फिल्मों की लोकप्रियता की। तमाम चीजों की कल्पना को मूर्त रूप में देख कर, सहज अनुभूति व आनन्द प्राप्ति की। यानी अंग्रेजी की कहावत, "सीइंग इज़ बिलीविंग" ।

दूसरी बात यह है, जो, सुप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक फ्रायड कहते हैं, कि, कला वह नशा है, जिससे, जीवन की कठोरताओं से विश्राम मिलता है। शायद, सही कहते हैं, फ्रायड !

अब सवाल यह है, कि यह नशा कितना जरूरी या गैर जरूरी है ? तो, मेरे विचार से तो यह मानना कत्तई जरूरी नहीं कि, फिल्में ही मनोरंजन का सर्वोत्तम साधन हैं। जिस देश में मैं रह रहा हूँ , यहाँ, फिल्मों को ले कर बात करें, तो तुरन्त भारत की बात शुरू हो जाती है। लोग, भारत पर बात करना और फिल्मों पर बात करना एक ही जैसा समझते हैं। किसी को यहाँ की फिल्मों के बारे में कोई दिलचस्पी नहीं। ऐसे और भी बहुत देश होंगे, जहाँ फिल्मों को ले कर लोगों में कोई विशेष उत्साह नहीं होगा।

इन्डोनेशिया में, पिछले तीन साल से रहते हुए, मुझे अभी भी यह सोच कर हैरत होती है, कि इस देश के नागरिकों को क्रिकेट और फिल्म जैसी बीमारियों के बारे में जानने या बात करने की कोई दिलचस्पी नहीं है। और न ही, इनके बारे में, किसी किस्म का कोई उत्साह यहाँ के लोगों में, देखने को मिलता है।

तो, हो सकता है, कि यह फिल्में देखने और उनके बारे में बातें करने का शगल, विकसित देशों में ही ज्यादा हो। क्यों कि, कल्पनाओं में भी आनन्द लूटने का जज्बा सम्पन्न समाज में ही शायद, आसानी से पनप पाता हो, और, ज्यादा पनपता हो।

बहरहाल, फिल्में अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम हैं, इसको मान लेने में, कोई गुरेज नहीं।

जिस तरह, खाना, कपड़ा और घर, हर व्यक्ति की आवश्‍यकता है, उसी तरह, खाली समय में भी, मानसिक स्फूर्ति को हासिल रख पाने के लिये, (अंग्रेजी के शब्द fatigue से बच पाने के लिये), स्वस्थ मनोरंजन आवश्‍यक है, जो आप की सृजनात्मक शक्ति को बिखरने से रोक सके और सही दिशा में, सही परिप्रेक्ष्य में, समाज की विभिन्न गतिविधियों से जोड़ सकने में सक्षम हो।

"गाँधी" जैसी फिल्म मनोरंजन के लिये तो नहीं बनी। पर, इतिहास को समझने और जानने का एक बेहतरीन प्रयास था उस फिल्म में, जो, गाँधी युग के लगभग समाप्त होते हुए समय में, उनकी याद पुन: ताजा कर गयी और एक ऐसे समय में, जब लोग गाँधी जी को लगभग भूल चुके थे, उस समय में, उनके मूल्यों और आदर्शों को पुनः समझने की और प्रतिष्ठापित करने की प्रासंगिकता और आवश्‍यकता को महसूस करा दिया, रिचर्ड एटनबरो ने।

समान्तर सिनेमा के दौर में जो फिल्में बनीं, वह एक प्रकार से कहा जाय, तो, उस विचारधारा के खिलाफ एक मुहिम थी, जिसके अन्तर्गत व्यक्ति को समाज के नीचे पड़े मलबे में जिये जा रहे जीवन के बारे में जानने की कोई दिलचस्पी ही नहीं थी। पार,दामुल,द्रोहकाल,आक्रोश,प्रहार,अर्धसत्य, सद्‍गति,अंकुर, अंकुश,निशान्त जैसी सारी फिल्में, मैं तो कहूँगा, कि आँखे मींचे समाज को, थप्पड़ मारने की कोशिश थी। इन फिल्मों के निर्देशकों में, समाज के प्रति मुझे एक गहरी सजगता देखने को मिली। जैसे, मानो वे यह कहना चाहते रहे हों, कि, इन निचले आर्थिक श्रेणी में, पलने, बढ़ने वालों का जीवन कब जीने लायक होगा ? हाल ही में, आयी फिल्म "गंगाजल" में भी मुझे व्यावसायिक धरातल पर दम तोड़ चुके समान्तर सिनेमा की साँसों का आभास हुआ। इन फिल्मों में एक क्रिएटिव वैल्यू थी; भले ही, इन फिल्मों ने मनोरन्जन नहीं परोसा।

तो, यह था त्रिभुज का तीसरा कोण। यानी, सच्चाईयों से मुख मोड़ कर जीने वाले समाज को कठोर विषमताओं का साक्षात्कार कराना।

बाकी अपनी पसन्द-नापसन्द का जहाँ तक प्रश्‍न है, तो, फिल्म "प्रतिघात" में, नाना पाटेकर पर फिल्माये गये गाने "हमरे बलमा बेईमान, हमें पटियाने आये रे..." के दृष्य में तो, मुझे, सृजनात्मकता, मनोरन्जन, कला, अभिनय,पीड़ा, अनुभूति,अभिव्यक्ति सब कुछ एक साथ दिखता है। यह दृष्य कुछेक उन दृष्यों में से है, जो मुझे हर प्रकार की मानसिक अवस्था में प्रिय लगता रहा है !

भयपूर्ण और, ऊलूल-जुलूल कथानक पर आधारित फिल्मों में मनोरंजन ढ़ूँढ़ने का मनोविज्ञान मुझे नहीं पता और, न हीं शायद मैं समझ पाऊँगा।

हाँ, भारतीय फिल्मों की जो मुख्य धारा है, उसको देखने में, सौन्दर्य को निरखने का जो सुख है, वह भी, तो अप्रतिम और निराला है । तो, जो सौन्दर्य आप की कल्पना के भी बाहर लगता हो, उसे करीब से देखने, और वह भी चलते फिरते हुए रूप में देखने के लिये, किसी कारण का मोहताज क्यों हो ?

Friday, September 16, 2005

संगति की गति


मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है । और , इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है , कि वह अन्य जीवधारी प्राणियों की तुलना में सर्वाधिक विकसित प्राणी भी है । इस नाते मानव समाज में सहअस्तित्व का
भाव भी अन्य जीवधारियों की तुलना में कहीं अधिक महत्वपूर्ण है ।

पर , सहअस्तित्व की मूल अवधारणा और समुचित महत्व को समझना तो सहज है । लेकिन इसके व्यावहारिक पहलुओं पर अगर गौर करें , तो यह बात इतनी जटिल हो जाती है कि इस अवधारणा का महत्व सिर्फ सैद्धान्तिक लगने लगता है ।

समाज के संवेदनशील अंग समझे जाने वाले कवियों , साहित्यकारों ने इस महत्व को तरह तरह से समझने और परखने की कोशिश की और भिन्न भिन्न ढ़ंग से अपनी बातें कही हैं । मसलन , देखिये कुछेक प्रचलित व सर्वमान्य उद्धरणः

(१). "चंदन विष व्यापत नहीं , लिपटे रहत भुजंग।"
(२). "कह रहीम कैसे निभे , केर , बेर को संग ? "
(३). "खल संग कलह , न , भल संग प्रीति ।
कवि , कोविद सबकी यह रीति ।।"
(४) "जो तो को काँटा बुए , ताहि बोए तू फूल ।
ताके फूल के फूल हैं , वाके हैं तिरशूल ।।"
(५) "शठ सुधरहिं सतसंगति पाई"
(६) "वृक्ष कबहुँ नहिं फल भखैं , नदी न संचै नीर
परमारथ के कारनौं , साधुन धरा शरीर । "
(७) “एक घड़ी , आधी घड़ी , आधी में पुनि आध,
तुलसी संगति साधु की हरै कोटि अपराध ।“

ये वे कुछ उद्धरण हैं , जिन्हें मैं , सिर्फ स्मृतियों को टटोल कर प्रस्तुत कर रहा हूँ ।

पर ,यह सूक्तियाँ या उक्तियाँ ,कहीं तो मुझे अतिशयोक्ति बन पड़ी दिखती है और ,कहीं बिना स्वयं ,अमल मे लाये गये ,दूसरों पर थोपे गये उपदेश मात्र ।

अब देखें जरा , कहा गया है , "चंदन विष व्यापत नहीं ....." । ठीक है , चंदन वृक्ष है , प्राण तत्व उसमें भी है । लेकिन ,कभी किसी चिकित्सक के यहाँ ,आपने किसी ऐसे छोटे बालक को ,जो ,गोद में रहने की अवस्था पार कर चुका हो और बोल चाल में सक्षम हो ,अपने अभिभावक की उपस्थिति में भी ,सूई चुभाए जाने की प्रक्रिया से गुजरते हुए देखा है।हो सकता है ,वह भय और छटपटाहट आपने किसी उम्रदराज व्यक्ति के साथ भी अनुभव की हो। लेकिन , इस उदाहरण को यहाँ पर उपस्थित करना मुझे इसलिये तार्किक लगा कि , चंदन का वृक्ष यदि जड़ से काट भी दिया जाये , तो वह कोई प्रतिरोध नहीं प्रकट करेगा लेकिन , उपरोक्त उदाहरण से , यह बात तो समझ में आती है कि व्यक्ति के सामने नेक आशय स्पष्ट हों भी , तो वह किन्हीं कष्टानुभवों को स्वेच्छापूर्वक वरण नहीं करना चाहता ।

एक दूसरी उक्ति देखें , "खल संग कलह , न , भल संग प्रीति...." । बात बहुत गूढ़ता से व्यक्त है । पर , जिस तरह ज्यामितीय प्रमेयों की "कोरोलोरी" भी कहीं-कहीं निकल पड़ती हैं , कुछ वैसा ही मुझे , इस दोहे के साथ प्रतीत होता है । इस दोहे में निहित शिक्षा आप को सबसे पहले यह तय करने का निर्देश देती है कि आप पहले यह निर्धारित करें कि , अमुक व्यक्ति किस श्रेणी के लायक है ? कुटिल या सम्भ्रान्त ? और , तदुनुरूप आप किसी से विग्रह मोल लें , या न लें । पर , यक्ष प्र‍श्‍न यह है , कि अगर खल आपसे कलह मोल ले , तो आप क्या करें ?

अगर आप ने डब्लू॰डब्लू॰एफ॰ की प्रतियोगिताओं में भाग लेने वाले बलिष्ठ पहलवानों को भिड़ते हुए कभी देखा होगा , तो क्या आप यह मानने को तैयार नहीं कि , पशुवत आचरण से दूर रहने में नहीं , बल्कि उसे अपना कर , खेल बना कर , जो समाज मजे लेने में व्यस्त है , उस वर्ग या समूह को , अभी तक खेल और हिंसा के मायने ही ठीक से नहीं पता !

सुप्रसिद्ध एवं सुप्रतिष्ठित कवि श्री गोपलदास नीरज ने , एक कवि सम्मेलन में कहा , कि मेरी कविता के अगर सिर्फ पहले दो पंक्तियों को , आप ने अपनी सोच में शामिल कर लिया , तो मैं अपना आना सार्थक समझूँगा और वे दो पंक्तियाँ यह थीं:

"एक मजहब अब , ऐसा भी चलाया जाये , कि ,
इस दौर के इन्सान को इन्सान बनाया जाये ।"

कहने का तात्पर्य यह , कि सिर्फ मनुष्य का जन्म लेने वालों को ही मनुष्य नहीं माना जाना चाहिये । मनुष्य की परिभाषाओं के दायरे में आने वालों को ही मनुष्य का दर्जा दे पाना संभव है।

मैं इलाहाबाद के इन्जीनियरिंग कालेज के प्रथम वर्ष में था । प्रवेश की औपचारिकताएँ भी अभी ठीक से नहीं पूरी हो पायीं थीं कि, मेरे ही कक्षा के , भिलाई से आये एक छात्र की नृशंस हत्या कर दी गयी थी। लड़के का शव , विद्यालय परिसर में ही ट्रेन की पटरी पर पाया गया । मैं सोच कर भी किसी नतीजे पर आज तक नहीं पहुँच पाया कि महीने भर भी तो नहीं गुजरे थे , हम लोगों को कालेज आये ; फिर कौन सी ऐसी वजह थी कि , मेरे ही जैसे दिखते हुए किसी सामान्य व्यक्ति के लिये , किसी के मन में इस कदर शत्रुता घर कर गयी कि उसे जान से हाथ धोना पड़ा (क्योंकि यह तय बात थी , कि न तो उसने आत्महत्या की थी , न हीं वह किसी दुर्घटना का शिकार हुआ था । )

यहाँ समाज उत्तरदायी है । समाज , मतलब , हर एक व्यक्ति । १९८३ में हुई घटना का २००५ तक कोई हल नहीं ढ़ूँढ़ा गया ।
लेकिन , एक व्यक्ति था , काली कलूटी काया वाला , सामान्य सा कद , आँखों पर मोटे लेन्स का चश्मा , नाम था वाई॰वी॰एन॰राव !
जैसी की उम्मीद थी , घटना के बाद , तोड़-फोड़ और व्यापक पैमाने पर उपद्रव हुए । अगले ही दिन से विद्यालय बन्द हो गया अनिश्‍चितकाल के लिये। और , फिर जब विद्यालय के द्वार खुले , तो प्रिंसिपल की कुर्सी पर एक नया आदमी बैठा था । इसी व्यक्ति का नाम था , वाई॰वी॰एन॰राव ।
मुझे , अन्य मित्रों के प्रेरणावश किसी शिक्षक को अपने जीवन में योगदान देने की वजह से , किसी शिक्षक का नाम याद नहीं आता लेकिन जिस प्रिंसिपल की बात मैंने शुरू की है , उस व्यक्ति की चुनौती थी , पूरे विद्यालय के माहौल को शैक्षणिक माहौल में बदलना !

"शठ सुधरहिं सत्संगति पाई" का व्यावहारिक पक्ष बाकी के तीन सालों , विद्यालय में हम देखते रहे।

एक-एक दुष्टों के प्रति , शत्रुतापूर्वक निर्णय लेने में जो दृढ़ता उन्होंने दिखायी , कि फिर लड़कों को संस्थाओं में जीने का तरीका आ गया ।

ज्यादातर लोगों की विचारधाराएँ समाज में व्याप्त नियमों से प्रभावित होती है। लेकिन कुछेक लोग समाज के ऐसे केन्द्र बिन्दु पर होते हैं , जिनकी विचारधारा से पूरी व्यवस्था प्रभावित होती है , सम्पूर्ण मानव समाज प्रभावित होता है । ये "कुछेक" लोग चमत्कारी बाबा , राजनेताओं , माफिया भूपतियों से ले कर , आविष्कारकर्ताओं , वैज्ञानिकों , दार्शनिकों , समाज सुधारकों में से कोई भी हो सकता है । और , इस तरह से संगति की गति संक्रामक हो सकती है । भगवान "रजनीश" से कौन नहीं वाकिफ होगा ? मुझे बिल्कुल आश्‍चर्य नहीं होगा यदि इस लेख को पढ़ने वालों में से किसी ने स्वामी वल्लभ प्रभुपाद का नाम तक भी नहीं सुना हो । इनके किए गये कामों की बात तो छोड़ ही दें । जिन्होंने ISKON नाम की एक संस्था का निर्माण किया , जो भगवान कृष्ण के संदेशो के प्रचार , प्रसार का काम पचासों सालों से करती आ रही है । और जो गौरतलब बात है , वह यह कि यह संस्था पूर्णतः अंग्रेजों द्वारा संचालित होती है। इनका एक मंदिर वृन्दावन में है , मथुरा से थोड़ी दूर ! यहाँ अंग्रेज , पंडितों का काम करते हैं। यह करने की शक्ति उन्हें दी है , उस वैचारिक संगति ने , जो भारतीय होते हुए भी , सदैव भारत में , अपने लोगों के बीच अपरिचित रहा । कैसी विचित्र विसंगति है ?

यह सीख , आज भी १०० में से ९९ अभिभावक , संत , शिक्षक देते हैं और देते रहेंगे कि , कुसंग से बचना चाहिये । पर , इस संदर्भ में बचपन में पढ़ी एक कथा मुझे बहुत प्रासंगिक लगती हैं । किसी शिक्षक ने अपने प्रिय शिष्य से कहा , कि, "तुम्हें अमुक के साथ नहीं रहना चाहिये क्योंकि उस बालक की आदतें बिगड़ी हुई हैं ।" बच्चे ने शिक्षक से कहा , "यदि ऐसा है , तो क्या यह संभव नहीं कि मेरे संग से मेरे मित्र की आदतें सुधर जायें यानी उसके संग का प्रभाव मुझ पर न पड़ कर , उस पर मेरे संग का प्रभाव पड़े।"
यह कथा , शायद बाल मन के भोलेपन का प्रतीक और , अपने मित्रधर्म के प्रति अपने निष्कलुष विचारों को ही भले दर्शाती हो , और व्यवहार में , शायद ऐसा न होता हो , लेकिन यह सोच यह तो दर्शाती ही है , कि यदि आपकी सोच स्पष्ट है , तो आप को ज्यादा घबराने की जरूरत नहीं । यदि , आप अपने आचरण के प्रति खुद ईमानदार हैं तो जीवन में , किसी सलाहकार की जरूरत नहीं पड़ती ।

मुझे , इसीलिए यह जान पड़ता है , कि संगति , कुसंगति , और सत्संगति के प्रभाव तो पड़ते हैं , क्योंकि संगति के प्रभाव से मनोविज्ञान प्रभावित होता है और , मनोविज्ञान बदलने से विचार बदलते हैं , फिर आचार , फिर व्यक्ति का सम्पूर्ण व्यक्तित्व। अतएव , मुझे रवीन्द्र नाथ टैगोर का "एकला चलो रे" का आवाह्न या भगवान बुद्ध का "अप्पदीपो भवः" का संदेश ज्यादा यथार्थपरक, शाश्‍वत और कालजयी लगते हैं । और , ये संदेश , मुझे दूर तक दुनिया के मायावी संगतियों , विसंगतियों से , बतौर सामान्य व्यक्ति , अपनी अस्मिता की रक्षा प्रदान करने में अधिक समर्थ जान पड़ते हैं।
।।इति श्री।।

Wednesday, August 10, 2005

हिन्दी सुभाषित सहस्त्र










परिस्थिति
(१). सुख में गर्व न करें , दुःख में धैर्य न छोड़ें ।
- पं श्री राम शर्मा आचार्य
(२). मनःस्थिति बदले , तब परिस्थिति बदले ।
- पं श्री राम शर्मा आचार्य
मनुष्यत्व
(३) .
मानव तभी तक श्रेष्ठ है , जब तक उसे मनुष्यत्व का दर्जा प्राप्त है । बतौर पशु , मानव किसी भी पशु से अधिक हीन है। - रवीन्द्र नाथ टैगोर
आदर्श
(४) .
आदर्श के दीपक को , पीछे रखने वाले , अपनी ही छाया के कारण , अपने पथ को , अंधकारमय बना लेते हैं। - रवीन्द्र नाथ टैगोर
कल्पना
(५) .
तर्क , आप को किसी एक बिन्दु "क" से दूसरे बिन्दु "ख" तक पहुँचा सकते हैं। लेकिन , कल्पना , आप को सर्वत्र ले जा सकती है। - अलबर्ट आइन्सटीन
प्रेम
(६) . व्यक्ति के बारे में राय बनाने वाले , व्यक्ति से प्रेम नहीं कर सकते।- मदर टेरेसा
(७) .यदि आप नृत्य कर रहे हों , तो आप को ऐसा लगना चाहिए कि , आप को , देखने वाला कोई भी आस-पास मौजूद नहीं है। यदि आप किसी संगीत की प्रस्तुति कर रहे हों , तो आप को ऐसा प्रतीत होना चाहिये कि , आप की प्रस्तुति पर , आप के सिवा अन्य किसी का भी ध्यान नहीं है । और , यदि आप सचमुच में , किसी से प्रेम कर बैठें हों , तो आप में ऐसी अनुभूति होनी चाहिए , कि , आप पहले कभी भी भावनात्मक तौर पर आहत नहीं हुए हैं। - मार्क ट्वेन

कला
(८) . कला एक प्रकार का एक नशा है,जिससे जीवन की कठोरताओं से विश्राम
मिलता है। - फ्रायड
कानून
(९) . कानून चाहे कितना ही आदरणीय क्यों न हो , वह गोलाई को चौकोर नहीं कह सकता। - फिदेल कास्त्रो
समाज
(१०) . सर्वविनाश ही , सहअस्तित्व का एकमात्र विकल्प है। - पं. जवाहरलाल नेहरू
(११) . धीरज , धर्म , मित्र अरू नारी । कष्ट समय परिखहुँ एहि चारी । - गोस्वामी तुलसीदास
जीवन
(१२) . किसी भी व्यक्ति का अतीत जैसा भी हो , भविष्य सदैव बेदाग होता है। - जान राइस
इतिहास
(१३) . इतिहास , असत्यों पर एकत्र की गयी सहमति है। - नेपोलियन बोनापार्ट
स्वास्थ्य
(१४) . स्वास्थ्य के संबंध में , पुस्तकों पर भरोसा न करें। छपाई की एक गलती जानलेवा भी हो सकती है। - मार्क ट्वेन
विविध
(१५) . स्पष्टीकरण से बचें । मित्रों को इसकी आवश्यकता नहीं ; शत्रु इस पर विश्वास नहीं करेंगे । - अलबर्ट हबर्ड
अतिथि
(१६) . मछली एवं अतिथि , तीन दिनों के बाद दुर्गन्धजनक और अप्रिय लगने लगते हैं । - बेंजामिन फ्रैंकलिन
आदर्श
(१७) . अपने उसूलों के लिये , मैं स्वंय मरने तक को भी तैयार हूँ , लेकिन किसी को मारने के लिये , बिल्कुल नहीं। - महात्मा गाँधी
स्वभाव
(१८) . विजयी व्यक्ति स्वभाव से , बहिर्मुखी होता है। पराजय व्यक्ति को अन्तर्मुखी बनाती है। - प्रेमचंद
मित्र
(१९) . अच्छे मित्रों को पाना कठिन है , वियोग कष्टकारी और भूलना असम्भव होता है। - रैन्डाल्फ
ज्ञान
(२०) . ज्ञान एक खजाना है , लेकिन अभ्यास इसकी चाभी है। - थामस फुलर
सफलता
(२१) . प्रत्येक व्यक्ति को सफलता प्रिय है लेकिन सफल व्यक्तियों से सभी लोग घृणा करते हैं । - जान मैकनरो
(२२) . असफल होने पर , आप को निराशा का सामना करना पड़ सकता है। परन्तु , प्रयास छोड़ देने पर , आप की असफलता सुनिश्चित है। - बेवेरली सिल्स

विचार और सौन्दर्य
(२३) . विचारों की गति ही सौन्दर्य है। - जे बी कृष्णमूर्ति
अतीत और स्मृति
(२४) . अतीत चाहे जैसा हो , उसकी स्मृतियाँ प्रायः सुखद होती हैं । - प्रेमचंद
मानव मस्तिष्क
(२५) . सर्वोत्तम मानव मस्तिष्क की पहचान है , किन्हीं दो पूर्णतः विपरीत विचार धाराऒं को साथ- साथ ध्यान में रखते हुए भी स्वतंत्र रूप से कार्य करने की क्षमता का होना । - स्काट फिट्जेराल्ड
दर्शन
(२६) . आत्मदीपो भवः। - गौतम बुद्ध
(२७) . मेरा जीवन ही मेरा संदेश है। - महात्मा गाँधी
शांति
(२८) . यदि शांति पाना चाहते हो , तो लोकप्रियता से बचो। - अब्राहम लिंकन
(२९) . शांति , प्रगति के लिये आवश्यक है। - डा॰राजेन्द्र प्रसाद
धर्म
(३०). धर्म , व्यक्ति एवं समाज , दोनों के लिये आवश्यक है। - डा॰ सर्वपल्ली राधाकृष्णन
परिश्रम

(३१).चींटी से परिश्रम करना सीखें - अज्ञात




Saturday, July 02, 2005

माजरॆ का दूसरा पहलू

स्वामी जी कॆ तर्कपूर्ण विचार और "माजरा क्या है" कॆ फ़ुरसतिया संस्करणॊं पर हुए संवाद सॆ मुझॆ दॊ संवाद बॆबस/बरबस याद आ गयॆ।मॆरी समझ सॆ ,यॆ संवाद ,"माजरॆ" का वह पहलू है ,जॊ "माजरा क्या है ?" नहीं , वरन "माजरा क्यॊ है ?" पर ज्यादा अच्छी तरह सॆ प्रकाश डालतॆ हैं ।

पहली घटना ,पाँच-सात साल पहलॆ की है। जिस भारतीय व्यावसायिक प्रतिष्ठान मॆं मैं कार्यरत था , उस प्रतिष्ठान कॆ वरिष्ठ प्रबन्धक मंडल नॆ , हर वर्ष की भाँति , संस्थापक कॆ जन्मदिन कॊ उत्साहपूर्वक व उल्लासपूर्ण ढंग सॆ मनायॆ जानॆ कॆ क्रम मॆं , एक कवि-सम्मॆलन का आयॊजन किया। इस कवि-सम्मॆलन कॆ , सर्वाधिक चर्चित कवि थॆ , श्री ऒमप्रकाश आदित्य। मैं भी , चूँकि , श्री ऒमप्रकाश आदित्य कॆ काव्य -कौशल सॆ वाकिफ़ था , सॊ पहुँच गया , घटना-स्थल पर। मंशा यही थी कि,"आदित्य" कॊ रुबरू भी दॆखा जा सकॆ । काव्य-सम्मॆलन शुरु हुआ ,रात कॆ करीब 9 बजॆ । संस्था कॆ श्रम-कल्याण अधिकारी नॆ सबका स्वागत किया ,कविगणॊं का अपनॆ व्यस्त कार्यक्रमॊं मॆं सॆ समय निकालनॆ कॆ लियॆ आभार व्यक्त किया और श्रॊताऒं कॊ यह सूचना दी , कि इस काव्य-सम्मॆलन कॆ दॊ अतिथि कवि, सीधॆ-सीधॆ सन्युक्त राज्य अमरीका सॆ , हिन्दी प्रसार का कार्य सम्पन्न कर कॆ लौटॆ हैं। इन दॊ कवियॊं मॆं , एक तॊ थॆ , श्री ऒमप्रकाश आदित्य" और दूसरॆ थॆ , मॆरठ कालॆज कॆ प्रवक्ता श्री राम पँवार । परम्परानुसार ,कवि-सम्मॆलन कॆ मंगल आरम्भ कॆ लियॆ दीप प्रज्वलित हुआ और इसकॆ उपरान्त , महाप्रबन्धक महॊदय सॆ , इन द्वय अमरीका रिटर्न कवियॊं का स्वागत करनॆ कॆ लियॆ , उपहार स्वरूप शालॆं भॆंट करनॆ कॆ लियॆ , मंच पर आनॆ का अनुरॊध किया गया। यह बात सुननॆ मॆं , मुझॆ (और , सम्भवत: उस समय जिन्हॊंनॆ भी इसॆ ध्यान सॆ सुना । ) थॊड़ी अटपटी सी लगी। क्यॊं कि , मंच पर जितनॆ भी कवि थॆ (जिनमॆं दॊ महिला कवियत्रियाँ भी थीं , और , दॊ अतिवयस्क ही नहीं , वॄद्ध हॊ चुकॆ कवि भी थॆ। बाकी कॆ छह-सात कवियॊं कॊ , नयी उम्र कॆ कवियॊं की श्रॆणी मॆं रखा जा सकता था।) संस्था कॆ लियॆ वॆ भी अतिथि ही थॆ।दूसरी और तीसरी बात यह भी थी , कि , उपहार दॆनॆ की वजह बड़ी अजीब थी ; साथ मॆं , अगर शाल , बतौर उपहार सभी कविगणॊं कॊ भी दिया जाता , तॊ मामूली सा खर्च और बढता , जॊ कि , इतनॆ महत्वपूर्ण आयॊजन पर हर सम्भव दॄष्टि सॆ अपॆक्षित था।
बहरहाल , मुझॆ लगा कि , शायद आयॊजक भी , मॆरी तरह , कवि-सम्मॆलन सिर्फ़ टी.वी. और रॆडियॊ कॆ माध्यम सॆ ही दॆखतॆ-सुनतॆ आयॆ हैं। ऐसॆ मॆं , मंच और रंगमंच का अन्तर , दिल-दिमाग कॆ भीतर इस कदर समाया हॊता है , कि हमॆशा मंच कॊ रंगमंच कॆ रूप मॆं दॆखनॆ/बदलनॆ की कॊशिश की जाती है। इस फ़र्क कॊ , आयॊजन मॆं मंचासीन सभी कवियॊं नॆ शायद महसूस किया। नतीजा यह हुआ , कि कवि-सम्मॆलन शुरु हॊनॆ सॆ पहलॆ ही अपनी रंगत खॊ बैठा । बीच मॆं , (कवि का नाम तॊ , मैं भूल रहा हूँ) ".....ढूँढतॆ रह जाऒगॆ" जैसी प्रमुख और सशक्त हास्य-रचना का भी पाठ हुआ लॆकिन इतनॆ सशक्त हास्य रचनाकार कवि भी ज्यादा उत्साह नहीं जगा पायॆ। दूसरी तरफ़ , महिला कवियत्रियॊं मॆं भी , काव्य-पाठ मॆं , किसी दॊष कॊ लॆ कर मंच पर ही विवाद खड़ा हॊ गया। खैर , जैसॆ-तैसॆ अन्तत: श्री ऒमप्रकाश "आदित्य" की बारी आयी। मुझॆ यह आशा तॊ थी , कि , इस कवि-सम्मॆलन कॊ लॆ कर ऒमप्रकाश "आदित्य" कुछ मजा लॆंगॆ , लॆकिन यह आशा बिल्कुल नहीं थी , कि जिन प्रबन्धकॊं नॆ , उन्हॆं , बिरादरी सॆ अलग और ऊँचॆ लॆ जा कर , भाषा कॆ मान-सम्मान कॊ हथियार बना कर , अपनी श्रद्धा उनकॆ चरणॊ मॆं उड़ॆली थी , उन्हीं कॊ वॆ निशाना बना डालॆंगॆ। काव्य-पाठ प्रारम्भ करनॆ सॆ पहलॆ ही , "आदित्य" नॆ जॊ कहा , वह इस प्रकार था :
"यहाँ कॆ प्रबन्ध-मंडल नॆ कवि-सम्मॆलन कॆ आयॊजन का निर्णय लॆ कर निश्चय ही ,एक अच्छा कार्य किया है ,लॆकिन मैं यकीन कॆ साथ कह रहा हूँ , कि अमरीका जानॆ सॆ कॊई फर्क नहीं पड़ता है। ईश्वर नॆ चाहा , तॊ इस मंच पर बैठॆ यह सभी कवि , एक दिन अमरीका अवश्य पहुँचॆंगॆ। "
आगॆ , श्री ऒमप्रकाश आदित्य नॆ कहा ,"उम्मीद है , कवि-सम्मॆलन आयॊजित करनॆ कॆ साथ-साथ , इस कम्पनी कॆ प्रबन्धकगण अगली बार इस पर भी ध्यान दॆंगॆ।"यह कह कर ही , उन्हॊंनॆ अपना काव्य-पाठ प्रारम्भ किया।

सॊ, एक वजह तॊ यह है , कि , दुम हिलानॆ की जॊ प्रवॄति , भारत कॆ बुद्धिजीवी महानुभावॊं कॊ सम्पन्न बनॆ रहनॆ कॆ लियॆ एक बार आवश्यक हॊ जाती है फिर यह आदत , ऒमप्रकाश "आदित्य" जैसॆ लॊगॊं कॆ समय पर लात मारनॆ कॆ बाद भी बनी रहती है , जाती नहीं।

नहलॆ पर दहला यह , कि प्रॆरणास्वरूप यह सभ्यता कॆ रूप मॆं विकसित हॊ कर समाज मॆं स्थान पा चुकी है।

मैं स्वामी जी की बात सॆ सहमत हूँ । बतौर भारतीय बुद्धिजीवी , हममॆं मूलभूत गुणॊं का अभाव है। जिन भारतीयॊं कॆ विदॆशॊं मॆं झंडा गाड़ॆ रखनॆ की बात है , उनका तॊ दॆश की समस्याओं सॆ कॊई नाता ही नहीं। फिर उनकी याद सॆ आँखॆ नम करनॆ कॆ अलावा , और कुछ फायदा दिखता है क्या ?

दूसरी घटना हाल-फिलहाल की है। जिन दिनॊं , दॆश छॊड़ कर , हम चार भारतीय यहाँ (सुमात्रा) पहुँचॆ , तॊ , सुमात्रा पहुँचतॆ ही , विचारॊं कॆ आदान-प्रदान कॆ दौरान , एक नॆ घॊषणा कर दी , कि , "आई डॊन्ट लाईक इन्डिया"

और , जब पिछलॆ वर्ष कॆ अन्त मॆं , सुनामी लहरॊं नॆ यहाँ अपना आतंक ठॆला , तब सॆ इनकॆ कम्प्यूटर पर लगायॆ वालपॆपर की जगह भी लहराते भारतीय तिरंगॆ नॆ ही लॆ रखी है।

तॊ, सारॆ माजरॆ की कुछ वजहॆं यह भी हैं। बतौर निचॊड़ और निष्कर्ष ,समाज का जितना बॆड़ा भ्रष्टाचार सॆ गर्क हुआ हॊगा , उससे कई गुना ज्यादा नुकसान स्वार्थ लिप्त ताकतॊं नॆ किया है। फिर , चाहॆ उन स्वार्थी ताकतॊं कॊ हमनॆ , गुन्डा , माफियॊं कॆ रूप मॆ पहचाना या बुद्धिजीवियॊं कॆ रूप मॆं या फिर , पूँजीपति और अफसरशाहॊँ कॆ रूप मॆं। इन सबकॆ रास्तॆ बस अलग-अलग थॆ , तरीकॊं मॆं फ़र्क था , लॆकिन , तहजीब सबकी वही थी।

बन्‍दर लैम्‍पंग : गलियाँ हैं अपनॆ दॆस सी....

(भाग : दॊ)

भारतीयॊं का प्रतिशत , विश्व कॆ अन्य भागॊं की तरह इन्डॊनॆशिया मॆं भी अच्छा खासा है ।

बाली मॆं , रामलीला आज भी हॊती है , और यह , यहाँ आनॆ वालॊं पर्यटकॊं कॆ लियॆ प्रमुखतम आकर्षणॊं मॆं सॆ एक है । बाली मॆं , बसॆ लॊग , अधिकांशत: भारतीय मूल कॆ ही हैं और इनका प्रतिशत अनुपात , इन्डॊनॆशिया कॆ किसी अन्य भाग मॆं बसॆ भारतीयॊं कॆ प्रतिशत अनुपात सॆ ज्यादा है । (ध्यान रहॆ , कि , यह तथ्य , मैं , सिर्फ़ व्याप्त मत कॆ आधार पर ही लिख रहा हूँ ।)

यह भारतीय जनसंख्या , "बाली" कॆ अलावा , "जावा" मॆं , "जकार्ता" और "सुराबाया" तथा “सुमात्रा” कॆ "मॆडान" जैसॆ महत्वपूर्ण और बड़ॆ नगरॊं मॆं सर्वाधिक है । कुछ लॊग , या तॊ ,कई पीढियॊं पहलॆ आ कर यहाँ बस चुकॆ हैं , या फ़िर , हम जैसॆ कुछ लॊग जिजीविषा तलाशतॆ हुए ,यहाँ पहुँच आयॆ हैं।

अब , आइयॆ , लैम्पंग एयरपॊर्ट कॆ दूसरी तरफ़ , यानी पूर्व की ऒर चलतॆ हैं , सुमात्रा कॆ ग्रामीण अंचल कॊ जाननॆ , जॊ , मॆरॆ लियॆ , ज्यादा परिचित हॊ चला है ।

गाँवॊं मॆं खॆती करतॆ हुए , यहाँ कॆ किसान , बॉस की छाल सॆ बुनी , एक खास प्रकार की शन्क्वाकार टॊपी सिर कॆ उपर जरूर रख लॆतॆ हैं , जॊ हल्की और सस्ती हॊनॆ कॆ साथ-साथ , खुलॆ आकाश मॆं दॆर तक काम करनॆ वालॊं कॊ , धूप सॆ भी बखूबी बचाती है।

अन्य तमाम चीजॊं कॆ अतिरिक्त , जॊ चीज मुझॆ यहाँ अत्यधिक भाती है , वह है , यहाँ की जलवायु। सारॆ साल , यहाँ का तापक्रम 26 – 28 सॆन्टीग्रॆड कॆ आस-पास रहता है। मतलब , पूरॆ वर्ष मॆं , गर्म कपड़ॆ लादॆ रहनॆ कॆ झंझटॊं सॆ , स्थायी रूप सॆ , छुटकारा । यह सुख , कम सॆ कम , उत्तर भारत मॆं रहतॆ हुए , अपनॆ खुद कॆ दॆश मॆं तॊ सम्भव नहीं था, जिसका लाभ , पिछलॆ तीन वर्षॊं सॆ हम यहाँ उठातॆ रहॆ ।

लैम्पंग सॆ करीब डॆढ घन्टॆ की दूरी पर , एक गज-कानन स्थित है ।

गज-कानन का अभिप्राय हाथियॊं सॆ ही है । यह बात थॊड़ी चौंकाती है । लॆकिन , इससॆ भी ज्यादा चौंकानॆ वाली सूचना, मुझॆ अपनी उद्यम संस्था कॆ तकनीकी प्रबंधक सॆ बात-चीत कॆ दौरान तब मिली, जब उनकॆ संगणक पर दिख रहॆ छायाचित्र मॆं , उनकॆ द्वय पुत्रॊं कॆ नामॊं कॊ जाननॆ कॆ विषय मॆं , मैंनॆ अपनी जिज्ञासा प्रकट की । हालाँकि , प्रबंधक महॊदय स्वयं ईसाई हैं , लॆकिन उन्हॊंनॆ अपनॆ बड़ॆ पुत्र का नाम "युधिष्ठिर" एवं द्वितीय पुत्र का नाम "भीम" रखा हुआ है । सम्प्रति , उनकॆ यॆ दॊनॊं पुत्र , आस्ट्रॆलिया सॆ पिछलॆ दॊ सालॊं की शिक्षा पूरी कर कॆ , सम्‍प्रति , कनाडा और स्विटजरलैन्ड मॆं उच्चशिक्षारत हैं ।

इस सड़क पर , करीब 100 किमी की यात्रा , लगभग तीन घंटॊं मॆं पूरी कर कॆ , हम , गन्नॊं कॆ विश्व कॆ वॄहदतम कॄषि क्षॆत्र पर पहुँचतॆ है , जॊ पिछलॆ तीन वर्षॊं सॆ , मॆरा कार्य क्षॆत्र रहा है ।गन्नॊं कॆ इस जंगल मॆं पहुंच कर ,"जंगल मॆं मंगल" की कहावत सॆ सहज साक्षात्कार हॊता है । चीनी कॆ उत्पादन सॆ जुड़ा यह प्रांगण इतना विशाल है , कि इसका अनुमान , आप इस बात सॆ लगा सकतॆ हैं , कि, इस सम्पूर्ण कॄषिक्षॆत्र पर कीटनाशक दवाऒं कॆ छिड़काव कॆ लियॆ इस कम्पनी नॆ दॊ हॆलीकाप्टर खरीद रखॆ है । तीसरा हॆलिकाप्टर भी जरूरत पड़नॆ पर , इन्डॊनॆशिया की सरकार , एयर फ़ॊर्स की मदद सॆ , मुहैया कराती है । 62000 हॆक्टॆयर सॆ भी ज्यादा कॆ क्षॆत्रफ़ल मॆं फ़ैलॆ , इस पूरॆ प्रांगण कॆ हर हिस्सॆ मॆं , कच्ची और चौड़ी सड़कॊं का सुव्यवस्थित जाल फ़ैला हुआ है । तीन चीनी मिलॊं और एथनाल उत्पादन की एक ईकाई का कार्य ही , इस पूरॆ इलाकॆ की शान्ति कॊ भंग करतॆ हैं ।

बन्दर लैम्पंग सॆ , यहाँ पहुँचनॆ तक कॆ लगभग 100 किमी लम्बॆ इस रास्तॆ कॆ दॊनॊं ऒर , वैसॆ तॊ , दूर दराज तक , हरियाली ही हरियाली फैली नजर आती है , लॆकिन , गन्नॊं कॆ इस कॄषि क्षॆत्र पर पहुँचनॆ सॆ पहलॆ , सुव्यवस्थित कॄषि कार्य का जॊ एक और दॄश्य सड़क कॆ दॊनॊं तरफ दिखता है , वह है , अनान्नास कॆ फ़ार्म। जिनका जैम , जूस व अन्य विभिन्न रुपॊं मॆं उत्पादन, विक्रय और व्यापार आस्ट्रॆलिया की एक कम्पनी सॆ तकनीकी सहयॊग प्राप्त एक स्थानीय इन्डॊनॆशियाई कम्पनी द्वारा संचालित हॊता है।

एक बड़ॆ आश्चर्य की बात यह है , कि विश्व मॆं , इस्लाम मानने वालॆ सबसॆ बड़ॆ राष्ट्र हॊनॆ कॆ बावजूद भी , यहाँ कॆ लॊग , भाषा और पहनावॆ , दॊनॊं मॆं ही , इस्लाम माननॆ वालॊं की परम्परा सॆ भिन्न हैं । जिस तरह सॆ , मस्जिदॊं मॆं नमाज तॊ उर्दू भाषा मॆं ही पढी जाती है , लॆकिन मस्जिदॊं कॆ बाहर , यहाँ की भाषा "बहासा" प्रयॊग मॆं है। उसी तरह , यहाँ कॆ पहनावॆ मॆं , आधुनिक पॊशाकॊं (जॊ , वस्त्रॊं कॆ चीर-फाङ व , प्रत्यारॊपण सॆ बनतॆ हैं।) कॆ अतिरिक्त , जन सामान्य मॆं, पुरुष व स्त्रियॊं की पॊशाकॆं कमीज व पतलून (पैंट) ही प्रचलन मॆं हैं । अभी तक , मैंनॆ यहाँ बुरकॆ जैसी कॊई पॊशाक नहीं दॆखी है। अलबत्ता , कुछ महिलायॆं गलॆ और सिर कॆ उपर , अलग सॆ एक स्कार्फ़ बाँधी , यदा-कदा अवश्य दिख जाती हैं।

दूसरी महत्वपूर्ण चीज , जॊ , इन्डॊनॆशिया कॆ एक गैर हिन्दू राष्ट्र हॊनॆ कॆ कारण और भी आश्चर्य उत्पन्न करती है ; वह अनॊखी बात यह है , कि लैम्पंग और , इस इलाकॆ सॆ जुड़ॆ रास्तॆ कॆ बीच , करीब दॊ किलॊमीटर तक फ़ैली एक ऐसी बस्ती पड़ती है , जहाँ , आप , अगर गौर सॆ , सड़क कॆ दॊनॊं ऒर र्निमित भवनॊं कॊ दॆखॆं , तॊ , हर एक घर कॆ आगॆ , परन्तु , घर सॆ पॄथक , एक मंदिर जैसी कन्क्रीट की संरचना र्निमित दिखायी दॆती है। पूछनॆ पर , पता चलता है , कि यह छॊटा सा इलाका , जिसॆ "पूरा" कहतॆ हैं (यहाँ की स्थानीय भाषा मॆं, "पूरा" शब्द का मतलब “मंदिर” हॊता है।) , बाली सॆ आयॆ हिन्दुऒं का गाँव है। इसी दौरान , एक विस्तॄत इलाकॆ मॆं , खुलॆ आकाश कॆ नीचॆ ढॆर सारॆ कन्क्रीट की ऐसी ही संरचनायॆं फ़ैली दिखती हैं। यह , यहाँ कॆ सबसॆ बड़ॆ मंदिर का प्रांगण है। एक बार , इसी तरह कॆ एक अन्य प्रांगण मॆं , जॊ मूर्तियाँ मैंनॆ दॆखी थीं , वॆ निश्चित रूप सॆ भगवान गणॆश व हनुमान जी की मूर्तियॊं की ही नकलॆं थीं।
हालाँकि , इन जगहॊं व मूर्तियॊं का रख-रखाव बिल्कुल नहीं कॆ बराबर है , लॆकिन, इन प्रांगणॊं मॆं घुसनॆ कॆ बाद , यही लगता है , कि हम हिन्दुऒं कॆ ही किसी पूजा स्थल पर खड़ॆ हैं। मंदिरॊं कॆ प्रवॆश द्वारॊं पर , भारतीय मन्दिरॊं की भाँति ही , द्वारपालॊं का अंकन है। मूर्तियॊं का रंग रॊगन भी पारम्परिक है।

बन्दर लैम्पंग मॆं , भगवान बुद्ध का भी एक मंदिर है। यह इस बात का द्यॊतक है , कि , इन्डॊनॆशिया मॆं बौद्ध धर्म कॊ माननॆ वालॆ , अभी भी काफ़ी संख्या मॆं हैं। यहीं पर , यह तथ्य भी विस्मयकारी लगता है कि , गया , बॊधगया , सारनाथ , और कुशीनगर जैसॆ भगवान बुद्ध सॆ जुड़ॆ स्थलॊं कॆ भारत मॆं हॊनॆ कॆ बावजूद भी , भगवान बुद्ध कॊ पूजनॆ वालॊं की संख्या भारत मॆं नगण्य है । जबकि , इन्डॊनॆशिया , चीन , और श्री लंका जैसॆ दॆशॊं मॆं इस धर्म कॆ प्रति आस्था रखनॆ वालॊं का विश्वास अभी भी अक्षुण्ण बना हुआ है और इन दॆशॊं मॆं , भगवान बुद्ध की अभी भी ईश्वर कॆ रूप मॆं , पूजा की जाती है ।मॆरी इच्छा थी , कि , इन मूर्तियॊं कॆ चित्र भी इस लॆख कॆ साथ प्रस्तुत करूँ , पर यह तुरन्त सम्भव नहीं हॊ पाया । कालान्तर मॆं , अगर सम्भव हुआ , तॊ वॆ चित्र इस ब्लाग पर अवश्य उपलब्ध मिलॆंगॆ।

चलतॆ-चलतॆ , कुछ और बातॆं , जॊ सामान्य ज्ञान कॆ नातॆ , महत्व की हैं , साथ ही साथ रॊचक भी। यहाँ की अन्तर्राष्ट्रीय विमान सॆवा "गरुङ" कॆ नाम सॆ व्यवसायरत है और "जटायु" नाम की एक नागरिक विमान सॆवा भी , दॆश कॆ भीतर , कार्यरत है । यहाँ का सर्वॊच्च नागरिक अलंकरण "धरतीपुत्र" है । ( यह सम्मान भारत मॆं , "भारतरत्न" कॆ रूप मॆं दिया जाता है। )

इस लॆख कॆ अंत मॆं , लॆख कॊ पूरा करतॆ समय मैं , "तत्काल" कॆ ब्लागाधिपति , श्री विजय ठाकुर का आभार महसूस कर रहा हूँ , जिनकी प्रॆरणा सॆ मैं , इतनी ऊर्जा और इतना समय जुटा सका , कि यह लॆख इतनॆ विस्तार सॆ लिख पाया ।

मुझॆ लगता है , कि , इस वर्ष कॆ अंत मॆं , स्वदॆश वापस पहुँचनॆ पर , इस लॆख कॊ पढना , मॆरॆ लियॆ भी सुखप्रद अनुभवॊं मॆं सॆ हॊगा ।

बहरहाल , आप अपनी राय लिखना न भूलॆं ।